72वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देखिए भारत का आखिरी रेलवे स्टेशन, जहां साल में केवल दो दिन आजादी की लड़ाई में देश पर कुर्बान होने वालों के लिए ट्रेन चलती है।
ये है हुसैनीवाला बॉर्डर, जहां कि लिए पूरे साल में एक दिन, केवल 23 मार्च को और 13 अप्रैल को फिरोजपुर से एक स्पेशल ट्रेन चलती है। फिरोजपुर से लेकर हुसैनीवाला बॉर्डर तक स्पेशल ट्रेन 10 किलोमीटर का सफर तय करती है। एक समय में ये रेल लाइन हुसैनीवाला से होकर लाहौर तक जाती थी पर पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के दौरान यह रेल मार्ग बंद कर दिया गया।
यहां सतलुज दरिया पर बने रेल पुल को भी तोड़ दिया गया। अब फिरोजपुर से हुसैनीवाला में ही आकर रेल लाइन खत्म हो जाती है। रेलवे ट्रैक को ब्लॉक कर यहां लिखा गया है – द एंड ऑफ नार्दर्न रेलवे। गौरतलब है कि फिरोजपुर शहर से 10 किलोमीटर दूरी पर बने हुसैनीवाला बॉर्डर पर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि है।
इस समाधि पर 23 मार्च को हर साल मेला लगता है। शहीदी मेले में दूर-दूर से पर्यटक शामिल होते हैं। पिछले साल तो यहां के मेले में खुद पीएम मोदी आए थे। बहुत कम लोग जानते होंगे कि हुसैनीवाला स्थित समाधि स्थल 1960 से पहले पाकिस्तान के कब्जे में था। जन भावनाओं को देखते हुए 1950 में तीनों शहीदों की समाधि स्थल पाक से लेने की कवायद शुरू हुई।
करीब 10 साल बाद फाजिल्का के 12 गांव व सुलेमान की हेड वर्क्स पाकिस्तान को देने के बाद शहीद त्रिमूर्ति से जुड़ा समाधि स्थल भारत को मिल गया। सतलुज दरिया के करीब बने इस समाधि स्थल को अब पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित किया जा रहा है। समाधि स्थल के आसपास ग्रीनरी क्षेत्र विकसित किया जा रहा है। यहां पार्क और झूले-फव्वारे लगाए गए हैं। शुक्रवार और रविवार को खास तौर पर सैलानियों की भीड़ होती है।
भारत-पाक बॉर्डर पर बने समाधि स्थल पर लगे बोर्ड पर ये जानकारी अंकित है कि फांसी के बाद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के शवों के साथ अंग्रेज किस बेरहमी से पेश आए। स्मारक स्थल पर लगे बोर्ड के मुताबिक अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांड्रस की हत्या के दोष में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई तो इसके विरोध में पूरा लाहौर बगावत के लिए उठ खड़ा हुआ।
डरी हुई ब्रिटिश सरकार ने निश्चित तारीख से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजे तीनों को फांसी दे दी। उसके बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शवों के टुकड़े-टुकड़े कर अंग्रेज उन्हें लाहौर जेल की पिछली दीवार तोड़कर सतलुज दरिया के किनारे लाए और रात के अंधेरे में यहां बिना रीति रिवाज के जला दिया।
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