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होली पर्व से जुड़ी कुछ पौराणिक कहानियां……

जैसा की हम सभी लोग जानते हैं कि हमारे भारत देश में कई त्यौहार मनाए जाते हैं और हर त्यौहारों का अपना अलग ही महत्व होता हैं। भारत में विविध धर्मों के लोग निवास करते हैं। प्रत्येक धर्मों के लोगों का त्यौहार भी अलग-अलग होता हैं, लेकिन होली का पर्व (Holi Festival) एक ऐसा पर्व हैं जिसे सभी धर्मो के लोग मिलकर इस पर्व का आनंद उठाते हैं। इस त्यौहार पर सभी लोग एक-दूसरे को रंग लगाकर अपनी खुशियां जाहिर करते हैं।

होली का इतिहास और महत्व
प्रत्येक वर्ष होली को मनाने की वजह इसका इतिहास और विशेष महत्व है। हिरण्यकश्यप नाम का एक प्राचीन राजा था जो राक्षस प्रवृत्ति का था। वह अपने छोटे भाई की मौत का बदला लेना चाहता था जिसे भगवान विष्णु ने मारा था। इसलिए हिरण्यकश्यप अत्यधिक शक्तिशाली बनने के लिए भगवान ब्रह्मा की आराधना करने लगा और आखिरकार उसे वरदान मिल ही गया। इस वरदान के मिलने वह खुद को भगवान समझने लगा और लोगों से स्वयं की पूजा करने को कहने लगा। उसका एक बेटा था प्रह्लाद। प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम् भक्त था और प्रह्लाद हमेशा भगवान विष्णु का नाम जपते रहता था। हिरण्यकश्यप के लाख समझने पर भी प्रह्लाद भगवान विष्णु की पूजा, आरधना करता रहा क्योंकि वह भगवान विष्णु का परम भक्त था। बेटे द्वारा अपनी पूजा ना करने से नाराज उस राजा ने अपने बेटे को मारने का निर्णय किया और अपने बेटे प्रह्लाद को दंड देने के लिए अपनी बहन होलिका की गोद में बिठा दिया और आग लगा दी ताकि वह जीवित जलकर मर जाय लेकिन प्रह्लाद भगवान विष्णु के भक्त थे, जिन्होंने होलिका के आग से प्रह्लाद को बचाया और उसी आग में होलिका को जलाकर राख कर दिया। इसके बाद भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध कर दिया, और होली से ही होलिका की मौत की कहानी जुड़ी है। इसके चलते भारत के कुछ राज्यों में होली से एक दिन पहले बुराई के अंत के प्रतीक के तौर पर होली जलाई जाती है। तभी से हिन्दु धर्म के लोग शैतानी शक्ति के खिलाफ अच्छाई के विजय के रुप में हर वर्ष होली का पर्व मनाते है। प्यार भरे रंगों से सजा यह पर्व हर धर्म, संप्रदाय, जाति के बंधन खोलकर भाई-चारे का संदेश देता है।

होलिका की पूजा विधि
होलिका दहन से पहले नारियल, सुपारी, जायफल और गुलाबी रंग से होलिका का पूजन करें। इसके बाद आठ दीपक जलाकर चरो ओर रखें। फिर हाथ में असद, फूल, सुपारी, पैसा लेकर पूजन कर जल के साथ होलिका के पास छोड़ दें और अक्षत, चंदन, कुमकुम रोली, हल्दी, गुलाल, फूल इत्यादि होलिका पर अर्पित करें और इसके बाद होलिका की तीन परिक्रमा करें। नारियल, गेहूं की बाली को भूंज कर उससे बने प्रसाद सभी को बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें।

होली का आगमन
इन सब त्यौहारों में से वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्यौहार है होली, और होली का त्यौहार वसंत ऋतु के फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। जिसे वसंत ऋतु की शुरुआत भी माना जाता है। होली को रंगों का त्यौहार भी कहा जाता है और यह रंगों का पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है, लेकिन भारत और नेपाल में इस त्यौहार को बड़ी ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता हैं। इस पर्व पर खासतौर से गुजिया,पापड़,नमकीन, हलवा, तथा दही-बढ़े आदि पकवान बनाए जाते हैं,

होली को अनेक नामों से जाना जाता है
वसंत ऋतु के फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन यानि पहले दिन होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। फिर दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम से जानते है। कुछ हिस्सों में इस त्यौहार का संबंध वसंत की फसल पकने से भी है। किसान अच्छी फसल पैदा होने की खुशी में होली मनाते हैं। होली को ‘वसंत महोत्सव’ या ‘काम महोत्सव’ भी कहते हैं। लोग इस दिन एक दूसरे को रंग और गुलाल लगाकर होली की बधाई देते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाकर नृत्य करते हैं और लोग घर-घर जा कर लोगों को रंग भी लगाते है। कुछ लोग इस दिन भांग और मदिरे का भी सेवन करते हैं होली वसंत का त्यौहार है और इसके आने पर सर्दियां भी खत्म हो जाती है।

क्यों मानते है होली का पर्व
होली हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है, इस त्यौहार में लोग अपने गिले शिकवे दूर करते है और भाईचारा निभाते है और ऐसा माना जाता हैं की यदि किसी बात को लेकर एक दुसरे के बीच मनमुटाव हो जाता है तो इसे दूर करने के लिए इस त्यौहार का बेसबरी से इंतजार किया जाता हैं और उन्हें रंग, गुलाल लगाकर प्यार से गले लगाया जाता हैं। वह व्यक्ति भी पुराने गिले शिकवे भूलकर प्यार से गले लगा लेता हैं। एक दूसरे को रंग लगाने और गाने-बजाने का दौर दोपर तक चलता है। पहले रंग टेसू या पलाश के फूलों से बनाते थे और उन्हें गुलाल कहा जाता था। वो रंग त्वचा के लिए बहुत अच्छे माने जाते थे, क्योंकि उनमें कोई केमिकल नहीं होता था। लेकिन समय के साथ-साथ रंगों में परिवर्तन हो गया हैं, आज के समय में लोग रंग के नाम पर कठोर केमिकल का यूज़ करते हैं। इन रंगों के कारण ही लोगों को कई परेशानी होने लगी है, और कई लोगों इन रंगों के कारण होली खेलना ही बंद कर दिया है। अगर होली का मजा लेना है तो मथुरा में चले जाइये वहा की होली का अलग ही मजा है। होली के दिन लोगो के घरो में पुआ पूरी और मिठाई खास तौर बनाते है।

बरसाना होली
भारत में एक विशिष्ट स्थान जिसका नाम हैं ब्रजमण्डल। ब्रजमण्डल बरसाना गांव में भगवान कृष्ण जन्मस्थल मधुरा से करीब 44 कि.मी की दूरी पर है। ब्रज में होली एक विशेष ही महत्व होता हैं, क्योंकि होली की मस्ती की जो शुरुआत हुई हैं वो इसी ब्रज की पवित्र धरती से हुई थी और हम सब जानते है कि रास रचैया, मुरली बजैया भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का मंचन भी यहीं हुआ था। ब्रज के बरसाना गाँव में होली अलग प्रकार से खेली जाती है जिसे लठमार होली कहते हैं। ब्रज में वैसे भी होली ख़ास मस्ती से भरी होती है, क्योंकि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम संबंध से जोड़ा गया है। इस होली में नंदगाँव के पुरूष और बरसाने की महिलाएं हिस्सा लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगाँव के थे और राधा बरसाने की थीं। नंदगाँव की टोलियाँ जब पिचकारियाँ लिए बरसाना आते हैं तो उन सब पुरुषों पर बरसाने की महिलाएँ खूब लाठियाँ बरसाती हैं। पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना भी होता है। नंदगाँव और बरसाने के लोगों का विश्वास है कि होली का लाठियों से किसी को चोट नहीं लगती है। अगर चोट लगती भी जाती है तो लोग चोट पर मिट्टी लगाकर फ़िर शुरु हो जाते हैं। मथुरा में खेली जाने वाली इस लठ्ठ मार होली को देखने के लिये लोग से देश और विदेशो से आते हैं। बरसाना की होली की विचित्रता देखते ही बनती है। कहा जाता है कि यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों को घेरा था और यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ होली खलते थे।

कुमाऊं की होली
कुमाऊं की होली का तो अलग ही रंग है। वसंत के आगमन के साथ ही देवभूमि उत्तराखंड में होली का रंग चढ़ने लगा है। खासकर नैनीताल के कुमाऊं में तो होली के रंग बिखरने लगे हैं। बरसाने की लट्ठमार होली की तरह ही कुमाऊं की होली का अपना अलग महत्व है। कुमाऊं में होली की शुरुआत दो महीने पहले हो जाती है। अबीर-गुलाल के साथ ही होली गायन की विशेष परंपरा है। यहां की होली पूरी तरह से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय अंदाज में की जाती है। होली गायन गणोश पूजन से शुरू होकर पशुपतिनाथ शिव की आराधना के साथ साथ ब्रज के राधा कृष्ण की हंसी-ठिठोली से सराबोर होता है। अंत में आशीष वचनों के साथ होली गायन खत्म होता है। कुमाऊं में होली दो तरह की होती है, खड़ी होली और बैठकी होली। बैठकी होली के गायन से होली की शुरुआत होती है। बैठकी होली घरों और मंदिरों में गायी जाती है। मान्यता है कि यहां वसंत पंचमी से होली की शुरू हो जाती है, लेकिन कुमाऊं के कुछ हिस्सों में पौष महीने के पहले रविवार से होली की शुरुआत होती है। उस समय सर्दी का मौसम अपने चरम पर होता है। सर्द दुरूह रातों को काटने के लिये सुरीली महफिलें जमने लगती हैं। हारमोनियम व तबले की थाप पर राग-रागनियां का दौर प्रारम्भ हो जाता है। बैठकी होली में महिलाओं की महफिल अलग जमती है, तो पुरूषों की अलग। महिलाओं की होली में लोक गीतों का अधिक महत्व होता है।

इको फ्रेंडली होली
इको फ्रेंडली होली खलने के लिए पलाश के फूलों और फूलों की पंखुड़ी से रंग तैयार किया जाता हैं और बेसन,हल्दी और दूध से बने इन रंगों से भी होली खेली जाती हैं। एलोवीरा के कांटे निकालकर और उसमें नीम और तुलसी की पत्तियों को पीसकर उसका पेस्ट बनाकर होली के लिए रंग के रूप में उपयोग किया जाता हैं, यह इको फ्रेंडली रंग से त्वचा को कोई नुकसान भी नहीं होता और इसे आसानी से बनाया भी जा सकता हैं और साथ ही इससे चेहरे पर ग्लो भी आयेगा।

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